Saturday, February 13, 2010

माई नेमिज खान बहादुर पठान [1]

my_name_is_khan_2

न दिनों खान नाम चर्चा में है। माई नेम इज़ खान फिल्म विवाद में है। विवाद में लाने के सारे तत्व फिल्म के जन्म से जुड़े हैं। इसके बावजूद इस शब्द से जुड़ी जातीय पहचान का मिथ आज भी उतना ही रहस्यमय और आवरणों में लिपटा है। ऐसा नहीं कि खान के जातीय पहचान से जुड़े मिथ्या गर्व का खुलासा होना बहुत महत्वपूर्ण हो, मगर यह जानना तो ज़रूरी है ही कि आज चाहे खान शब्द को इस्लाम या एक जाति विशेष से जोड़ कर देखा जा रहा है, मगर मूल रूप में खान शब्द का इस्लाम धर्म या मुस्लिम समाज से पुरातन संबंध नहीं है। खास तौर पर इस्लाम की सरज़मीं अरब और अरबी समाज संस्कृति से खान का रिश्ता नहीं है। यही बात बहादुर शब्द के साथ भी है जो तुर्क मंगोल संस्कृति से उपजा शब्द है। यह जानना दिलचस्प है कि कुबलाई खान और चंगेज़ खान जैसे महान खान, मुसलमान नहीं थे। कुबलाई खान बौद्धधर्म की एक विशेष शाखा का अनुयायी था जबकि चंगेज़ खान चीन के शॉमन पंथ का अनुयायी था। खान वंशावली या खान सम्प्रभुता को अंग्रेजी में खानेट कहा जाता है। इतिहास में कई खानेट दर्ज है जो दसवीं सदी से शुरू होते हैं मसलन काराखानेट या इलेकखानेट। इनमें से ज्यादातर फारस या मध्यएशिया से लेकर सुदूर पूर्वी योरप के बल्गारिया तक पसरे थे। सुदूर मंगोलिया और मध्यचीन में जन्मे खान शब्द की पहचान कभी मंगोल वंश के शासकों ने अपनी सम्प्रभुता की सबसे बड़ी पदवी के तौर गढी थी, ठीक वैसे ही जैसे भारत में स्वामी शब्द में मालिक, शक्तिवान, पिता, पति, पालक, शासक अर्थात सर्वोच्चता के भाव निहित हैं। इसी तरह खान शब्द की अर्थवत्ता भी विकसित हुई थी। खान और बहादुर की इसी कतार में आगे खड़ा है पठान जिसके साथ भी जातीय पहचान जुड़ी है, दरहकीक़त यह सिर्फ इलाक़ाई पहचान बतानेवाला शब्द है।
खान शब्द के मूल में मंगोल और चीनी संस्कृति का भाषायी आधार है। इसकी व्युत्पत्ति संभवतः चीन के महान वंश हान से हुई है। हान वंश ने  दो सदी ईसापूर्व से लेकर ईस्वी 220 तक चीन में शासन किया। चीन के मध्यप्रान्त शांक्सी से होकर गुज़रनेवाली हानशुई नदी के नाम पर चीन के प्राचीन और प्रसिद्ध हान वंश का नामकरण हुआ। यह ठीक वैसे ही है जैसे सिन्धु नदी के नाम पर सैन्धव सभ्यता की पहचान बनी। मंगोल जाति के लड़ाकों ने जब मध्य चीन के राज्यों 800px-Emperoryuandinastycollage पर कब्जा करना शुरू किया तब उपाधि के तौर पर उस क्षेत्र के महान हान वंश के नाम पर कुछ नए शब्द जैसे काघान kaghan, कागान kagan, खाकान khakan या कान kan सामने आए। चीनी भाषा का एक उपसर्ग है के-ke जिसमें महानता, सर्वोच्चता का भाव है। हान han से पहले के जुड़ने से बना ke-han जिससे उक्त मंगोल रूपांतर बने। मंगोल भाषा में इन सभी नामों में शासक या सत्ता के सर्वोच्च पदाधिकारी का भाव था।
तिहास में सबसे पहले काघान के तौर पर रुआनरुआन कबीले से जुड़े मंगोल शासक मुरुंग तुयुहुन का नाम दर्ज है जो ईसा की दूसरी सदी के उत्तरार्ध में दक्षिणी मंगोलिया से सटी चीन की उत्तरी पट्टी का शासक था। खान उपाधि लगाने वाले शासकों के तौर पर सबसे व्यवस्थित वंशावली मंगोलिया के रुआनरुआन कबीले में नजर आती है। इससे जुड़े कुछ नाम देखें- क्योदोफा खान, इकुगाई खान, चिल्लिन खान, चू खान, फुमिंगदुन खान और तुहान खान। ये थे असली खान नाम जो सभी तीसरी सदी से पांचवी सदी तक चीन के उत्तरी हिस्से के शासक रहे। गौरतलब है कि इसके सदियों बाद इस्लाम धर्म का आविर्भाव हुआ। हालांकि बारहवी से चौदहवीं सदी तक भी चीन और मंगोलिया के शासक काघान या खाकान उपाधि धारण करते रहे थे और अनेक मंगोल कबीलो में यह शब्द राज्यप्रमुख के तौर पर अपनी पहचान बना चुका था। मुस्लिम शासक के तौर पर पहला खाकान तैमूर लंगड़ा ही सामने आता है। हालांकि मंगोलिया और चीन में तैमूर के समकालीन कई खाकान थे जो बौद्ध, नव-ताओवादी, नव-कन्फ्यूशियसवादी और शॉमन विचारधारा को माननेवाले थे। युआन वंश में भी कई खान हुए हैं। चीन का महान शासक कुबलाई खान इस वंश का संस्थापक माना जाता है। चीन की वर्तमान राजधानी पेइचिंग का नाम यूआन साम्राज्य के वक्त तातू, दादू या देदू था जिसका मतलब था महान राजधानी। मार्कोपोलो के वृत्तांत से पता चलता है कि पेइचिंग का नाम इसी अर्थ में कुबलाई खान के वक्त खानबालिक Khanbaliq रख दिया गया था जिसका मतलब होता है महान खान की राजधानी।
खान के ये सभी बहुरूप आज तुर्की मूल के माने जाते हैं। खान नामधारी शासकों की परम्परा फारस से लेकर तुर्की तक रही। दिलचस्प यह कि खान, खाघान, काघान जैसे उच्चारणों के साथ ये पदनाम मंगोल और तुर्कमानी हमलावर सुदूर पश्चिम स्थित तुर्की तक ले कर गए इसी वजह से इन्हें तुर्की मूल का मान लिया जाता है। काघान का अरबीकरण खाकान के रूप में हु्आ। अरब के कुछ सियासी अमलदारों के नामों के साथ यह खाकान शब्द नजर आता है पर अरब समाज ने सत्ता प्रमुख के तौर पर इस उपाधि में ज्यादा दिलचस्पी नहीं दिखाई। यह दिलचस्प है कि भारत में मुहम्मद बिन कासिम (695–715) से बाबर (1483-1531) तक जितने भी मुस्लिम हमलावर आए उनमें अधिकांश के साथ खान उपाधि नहीं लगी थी जबकि अपने वक्त में ये तमाम लोग किसी न किसी मूल इलाके के सर्वेसर्वा थे। भारत के कुछ हिस्से चंगेज़ खान के आक्रमण की चपेट में ज़रूर आए थे मगर चंगेज़ का धर्म इस्लाम नहीं था बल्कि शॉमन पंथ था। भारत में मुगल साम्राज्य का संस्थापक बाबर अपनी मां की तरफ से चंगेज़ खान (1206-1227) और पिता की

marco-needs-a-wallet_ ... मार्कोपोलो ने अपने प्रसिद्ध यात्रा वर्णन में कुबलाई खान के बौद्ध होने और चीन में उसे खाकान कहने वाले कई प्रसंग बताए हैं...

तरफ से तैमूर लंग (1336 –1405) का वंशज था। इतिहासकारों के मुताबिक तैमूर लंग भी अपना रिश्ता चंगेज़ खान से जोड़ता था, मगर यह कभी प्रमाणित नहीं हो सका। न जाने कितने खान यहां हैं। सब चंगेज़ से ही रिश्ता जोड़ना चाहते हैं जो न मुसलमान था और न ही महान निर्माता या दूरदृष्टा। वो सिर्फ एक योद्धा था, अलबत्ता डाक प्रणाली में उसकी सूझबूझ अनोखी थी जिसके जरिये सदियों पहले भी तेजी से संवाद प्रेषण  हो जाता था।
मंगोलिया और चीन के जिन खान शासकों ने गर्व से खान उपाधि को अपने नाम के साथ जोड़ा, वैसा कुछ उन्ही मंगोल खाकानों या खानों के वंशजों नें भारत में मंगोल या मुगल साम्राज्य स्थापित करने के बाद नहीं किया। आश्चर्य है कि इसे इस्लाम का प्रभाव कहिए या खुद की पहचान को इस्लाम की मूल सरजमीं से जोड़ने की चाह, भारत में आए मंगोलों और तुर्कों के वंशज, मुगल शासकों नें अरब या फारस के शासकों द्वारा इस्तेमाल की जानेवाली उपाधियों को अपनाया जैसे सुल्तान, बादशाह, शहंशाह या मलिक आदि। खान की उपाधियां ज़रूर मुगलों नें अपने अहलकारों को इफरात में बांटी। दरअसल मंगोलिया से तुर्की पहुंचने के बाद खान शब्द वहां भी उपाधियां बांटने का उपकरण बन कर रह गया। तुर्की के आटोमन शासकों ने तूरान क्षेत्र के शासकों को खान उपाधि दी। यही क्रम भारत में भी मुगलों ने चलाया। राज्याध्यक्ष द्वारा प्रदत्त यह खान उपाधि बड़े सम्मान का प्रतीक बनी और बाद में अगली पीढ़ियों ने भी इसका इस्तेमाल किया। पीढ़ी दर पीढ़ी खान शब्द का दायरा बढ़ता गया। आखिर इसके साथ जातीय पहचान कैसे न जुड़ती? मंगोल दायरे से बाहर निकलने के बाद खाकान शब्द का स्त्रीवाची खातून बना  जिसका अर्थ साम्राज्ञी था। बाद में फारसी में किसी भी सम्भ्रान्त स्त्री के लिए खातून, खानम या खानुम शब्द का प्रयोग होने लगा। खान से संबंधित कई शब्द आज हिन्दी उर्दू में प्रचलितत हैं जैसे खान ए खानान जिसे खानखाना  भी कहा जाता है। इसका अर्थ शहंशाह जैसा ही है अर्थात राजाओं में श्रेष्ठ। खानज़ादा यानी खान का बेटा या राजपुत्र (अथवा दासीपुत्र ), खानदान यानी कुल, कुटुम्ब। खानदानी यानी कुलीन। सतपुड़ा का दक्षिणी हिस्सा जो भारत को दक्षिण से अलग करता है, महाराष्ट्र के उत्तरी क्षेत्र तक पसरा है। इसे खानदेश कहते हैं। कोश इसकी व्युत्पत्ति खंद, खांद से बताते हैं जिसका अर्थ जंगल या उबड़-खाबड़ इलाका है। खंद का अर्थ खण्ड ही यहां लगाना चाहिए। मगर मुझे लगता है कि मध्यकाल तक खान शब्द से मुसलमानों की शिनाख्त की जाने लगी थी। इस क्षेत्र का नाम खानदेश इसलिए पड़ा क्योंकि दक्षिण में शासन करने को लालायित मुग़लों का यहां शासन था। इससे आगे उन्हें हमेशा दक्षिण के सशक्त रजवाड़ों ने रोक कर रखा। महाराष्ट्रीयों ने दरअसल अपने क्षेत्र में भीतर तक घुस आए मुस्लिम शासन और उनकी आबादी को देखकर यह नाम दिया होगा, ऐसा लगता है। अन्यथा इस क्षेत्र का प्राचीन नाम विदर्भ  ही है। [अगली कड़ी में समाप्त]

ये सफर आपको कैसा लगा ? पसंद आया हो तो यहां क्लिक करें

18 कमेंट्स:

Sanjay Karere said...

टीवी पर खान-खान सुन‍कर कान पक गए... अब यहां भी खान साहब आ गए!!! लेकिन सच कहूं तो इस खान चर्चा ने मजा बांध दिया। बहुत शानदार।

Khushdeep Sehgal said...

मान गए ख़ान का ये बखान...

जय हिंद...

Himanshu Pandey said...

खान-बखान बेहतरीन है ।
आभार ।

डॉ टी एस दराल said...

नई जानकारी लिए सामयिक और सार्थक लेख।

दिनेशराय द्विवेदी said...

शब्दों की खान!

Baljit Basi said...

एक और खोज भरा और समयोचित लेख, बस कपाट ही खोल रहा है. धर्म के नाम पर संकीर्ण राजनीती करने वाले लोग कभी इतिहास को नहीं समझते. अजित जी ने खान शब्द कि व्योत्पति स्पष्ट कर दी है लेकिन मान लो खान शब्द का संबंध शुद्ध रूप से इस्लाम से ही जुड़ा है, तो भी ऐसी राजनीती का बहुधा भारत में कोई स्थान नहीं होना चाहिए. पंजाब के जट्टों के बेशुमार गोत पाकिस्तानी मुसलमानों वाले ही हैं, संधू, रंधावा,चहल आदि.
'खानखाना' ने तो मेरे मन में हेरवा(nostalgia) पैदा कर दिया. यह पंजाब में मेरे गाँव के पास ही एक गाँव है और मैं इसे कई बार देख चुका हूँ. इसका संबंध अकबर के नौं रत्नों में से एक अब्दुर रहीम खानखाना से जोड़ा जाता है. कहा जाता है कि रहीम इस गाँव में १५५६-१६२७ तक रहे और उनके नाम पर इस गाँव का नाम पड़ा. अब्दुर रहीम खानखाना ने बाबर के संसमरण का तुर्की से फारसी में अनुवाद किया. वह खुद भी कवी और ज्योत्षी थे. मुस्लमान होते हुए वह कृषण के भक्त थे.
रहीम के कुछ दोहे:
रहिमन धागा प्रेम का, मत तोड़ो चटके,
टूटे से फिर न जुड़े, जुड़े गाँठ पड़ जाये.
रहिमन वे नर मर चुके, जे कहू मंगन जाही,
उनते पहेले वे मुए, जिन मुख निकसत नहीं.
कहा जाता है कि रहीम के तुलसी दस से भी कनिष्ठ सम्बन्ध थे.

निर्मला कपिला said...

बहुत अच्छी जानकारी है धन्यवाद्

उम्मतें said...

सुन्दर सामयिक विषय चयन/चिंतन...उम्मीद है कुछ ज्ञानचक्षु खुल जायेंगे!

इष्ट देव सांकृत्यायन said...

बहुत अच्छी जानकारी दी आपने. धन्यवाद.

अजित गुप्ता का कोना said...

बड़ी ही ज्ञानवर्द्धक जानकारी है। आभार।

RAJ SINH said...

अजीत भावू ,
बस ऐसे ही शब्द ज्ञान की ' खान ' पर ही तो हम आप पर फ़िदा हैं.
बस सफ़र जारी रहे...........धन्यवाद .

डॉ. मनोज मिश्र said...

जानकारी रोचक है...

अजित वडनेरकर said...

संजय भाई,
दिनभर भागमभाग रही। खान शब्द पर लिखना बीते तीन सालों से मेरी सूची में था। कुछ दिनों पहल गीत चतुर्वेदी और विजय से चर्चा के दौरान भी यही बात आई थी कि इस पर लिखा जाना चाहिए। बस, तभी लगा कि अब लिखते हैं। मेरे हिसाब से इस पर जितने गंभीर काम की गुंजाईश थी, उसे फिल्मी खान ने खा लिया है।
खैर, ब्लाग पर लगातार संपादन और परिष्कार की गुंजाईश रहती है।

Sanjay Kareer said...

तो दूसरा भाग भी लिख डालें... तीन साल इंतजार नहीं करूंगा।

विजय प्रकाश सिंह said...

आप हमेशा ही अच्छी जानकारी देते हैं | खान का प्रयोग कहीं- कहीं जो हिन्दू से मुसलमान बने उनके साथ यानी रोटी खाकर ( रोटी और बेटी का व्यवहार बांटा ) उनके लिए भी उपयोग होता है | क्या यह सही है आप ही बता सकते हैं |

शरद कोकास said...

अजित भाई , आज की यह पोस्ट इस अर्थ में महत्वपूर्ण है कि यह इतिहास के बारे में बहुत सारी भ्रांतियाँ दूर करती है । केवल नाम से जाति और धर्म का अन्दाज़ लगाने वाले और धर्म के नाम पर विधर्मियों से घृणा करने वाले लोगों को यह इतिहास ज़रूर पढ़ना चाहिये । बहुत सारे प्रचलित शब्दों की उत्पत्ति की जानकारी यहाँ मिलती है । खदान के अर्थ में प्रयुक्त किये जाने वाले खान पर भी प्रकाश डालिये ।

किरण राजपुरोहित नितिला said...

गज़ब की जानकारी . खान भाई भी काफी सफ़र करके यहाँ पहुचे है.और अभी भी सफ़र हे कर रहे है.

EP Admin said...

आलेख बेहतरीन है ......शब्द खान क्षेत्र विशेष में लीडर के लिए इस्तेमाल होता रहा है है....रही बात पठान की तो वैसे भी जातियां धर्मों से अलग मानी जाती हैं कई मामलों में धर्म से ऊपर भी....पूरा अफगानिस्तान बौध ही रहा है और फिर मुसलमान हुआ बहुसंख्यक पठान आबादी मुसलमान हो गयी..............
अब मुझ से पूछिये मै कौनसा पठान तो मै बताऊंगा इसाजई युसुफजई.....और मेरी इस उपजाति का इस्लाम से कोई लेना देना नहीं.....मै अपने पूर्वजों की गौरव गाथाओं मुझे कहीं इस्लाम नहीं दीखता.......ध्यान रहे इस्लाम १४०० साल पुराना मज़हब है और जातियां उससे पहले की
न जाने कितने खान यहां हैं। सब चंगेज़ से ही रिश्ता जोड़ना चाहते हैं जो न मुसलमान था
मुसलमान होना या ना होना मायने नहीं रखता.... चंगेज़ या तैमुर से अपना रिश्ता जोड़ने वाले लोग जातीय आधार पर उनसे रिश्ते जोड़ते हैं और गलत भी नहीं.......बहुसंख्यक पठान बौध्य से मुसलमान हुए हैं........पठानों की जनम स्थली अफगान है और हर पठान खुद को वहां से जोड़ता है........पठानों के यहाँ अक्सर उनकी उपजाति पूछी जाति है.....गौर करने वाली बात है अकबर खान बुगती का बयान "हम हजारो साल से पठान १४०० सालों से मुसलमान और महज़ ६० साल से पाकिस्तानी हैं" ज़ाहिर है इस्लाम के पूर्व पठान किसी और धर्म के अनुयायी होंगे

नीचे दिया गया बक्सा प्रयोग करें हिन्दी में टाइप करने के लिए

Post a Comment


Blog Widget by LinkWithin