Saturday, February 6, 2010

सुख-दुख की साझेदारी का रिश्ता [बकलमखुद-125]

…अब लगता है कि नितांत सहज जान पड़ने के बावजूद कॉमरेडशिप एक तरह की शर्त पर टिका हुआ संबंध है- विचारधारा की शर्त, जिसके मायने और खास तौर पर आग्रह-दुराग्रह लगातार बदलते रहते हैं। …

logo baklam_thumb[19]_thumb[40][12] चंद्रभूषण हिन्दी के वरिष्ठ पत्रकार है। इलाहाबाद, पटना और आरा में काम किया। कई जनांदोलनों में शिरकत की और नक्सली कार्यकर्ता भी रहे। ब्लाग जगत में इनका ठिकाना पहलू के नाम से जाना जाता है। सामाजिक-राजनीतिक मुद्दों पर बहुआयामी सरोकारों के साथ प्रखरता और स्पष्टता से अपनी बात कहते हैं। इन दिनों दिल्ली में नवभारत टाइम्स से जुड़े हैं। हमने करीब दो साल पहले उनसे  अपनी अनकही ब्लागजगत के साथ साझा करने की बात कही थी, ch जिसे उन्होंने फौरन मान लिया था। तीन किस्तें आ चुकने के बाद किन्ही व्यस्तताओं के चलते  वे फिर इस पर ध्यान न दे सके। हमारी भी आदत एक साथ लिखवाने की है, फिर बीच में घट-बढ़ चलती रहती है। बहरहाल बकलमखुद की 124 वी कड़ी के साथ पेश है चंदूभाई की अनकही का आठवां पड़ाव। चंदूभाई शब्दों का सफर में बकलमखुद लिखनेवाले सोलहवें हमसफर हैं। उनसे पहले यहां अनिताकुमार, विमल वर्मा, लावण्या शाह,काकेश, मीनाक्षी धन्वन्तरि, शिवकुमार मिश्र, अफ़लातून, बेजी, अरुण अरोराहर्षवर्धन त्रिपाठी, प्रभाकर पाण्डेय, अभिषेक ओझा, रंजना भाटिया, पल्लवी त्रिवेदी और दिनेशराय द्विवेदी अब तक लिख चुके हैं।

लाहाबाद में कई लोगों से मेरी गहरी दोस्तियां भी हुईं लेकिन उन्हें पारंपरिक अर्थों में दोस्ती कहना शायद ठीक नहीं रहेगा। यह कॉमरेडशिप थी- दोस्ती से कहीं ज्यादा गहरी लगने वाली चीज लेकिन दिली मामलों में उतनी ही दूर की। इसका अंदाजा इस बात से मिलता है कि इलाहाबाद में जिन लोगों के साथ दिन-रात रहना होता था उनमें एक भी दोस्त की अब मुझे याद नहीं आती। कभी बातचीत का मौका आता है तो एकता और लगाव के हजारों बिंदु निकल आते हैं, लेकिन उनकी याद न तो खुशी के मौकों पर आती है, न तकलीफ के। याद आते हैं तो हरिशंकर निषाद, राम किशोर वर्मा और सुनील द्विवेदी, जिनसे इलाहाबाद में रहते मुलाकात कभी-कभी ही हो पाती थी, लेकिन जो अपनी तरफ से हाल-चाल जानने का कोई मौका आज भी नहीं चूकते। इसकी वजह शायद यह है कि इनसे मेरा लगाव संगठन या राजनीति से ज्यादा दुख-सुख के साझे का था। अब लगता है कि नितांत सहज जान पड़ने के बावजूद कॉमरेडशिप एक तरह की शर्त पर टिका हुआ संबंध है- विचारधारा की शर्त, जिसके मायने और खास तौर पर आग्रह-दुराग्रह लगातार बदलते रहते हैं। इसके बरक्स दोस्ती अपनी बुनियाद में ही बिना शर्त का रिश्ता है। एक-दो देर तक चली दोस्तियां बताती हैं कि इन्हें शर्तों से बांधना इन्हें किस कदर बोझिल बना देता है और शर्तें हटते ही ये कैसी खिल उठती हैं।इसका अर्थ यह नहीं कि कॉमरेडशिप कोई कम मानीखेज चीज है। उम्र के एक खास मुकाम पर बना यह रिश्ता हममें से हर किसी के लिए एक तरह का नोडल पॉइंट है, जिसे एक्सप्लोर करने का काम ब्लॉग के जरिए या दूसरे तरीकों से जीवन भर किया जा सकता है। अपने कॉमरेडों में से ज्यादातर जिंदगी को सचेत ढंग से जीने वाले लोग हैं और उनसे इंटरैक्शन में इस अबूझ पहेली के मायने पता चलते हैं।
1987 के बीच में राजीव हटाओ आंदोलन के क्रम में लखनऊ में होने जा रही रैली के अग्रिम दस्ते के रूप में इलाहाबाद से प्रतापगढ़, अमेठी और रायबरेली होते हुए लखनऊ तक एक साइकिल यात्रा निकालने का फैसला हुआ। शुरू में उत्साहजनक बातें कई लोगों ने कीं लेकिन जब चलने की बात हुई तो ले-देकर पांच लोग इसके लिए तैयार हुए। करमचंद, विक्रम, अजय राय और उनके एक साथी, जिनका नाम मैं भूल गया हूं। अपेक्षाकृत लंबे रास्ते से करीब तीन सौ किलोमीटर लंबी यह यात्रा कई मायनों में अद्भुत थी। इसके अंतिम दिन हमें अस्सी किलोमीटर साइकिल चलानी पड़ी क्योंकि रायबरेली से लखनऊ के बीच हमारे पास खाने और ठहरने के लिए कहीं कोई संपर्क नहीं था। बछरावां बाजार में हम लोगों ने एक सभा को संबोधित किया, लेकिन वहां से निकलते-निकलते रात हो गई थी। अंधेरी सड़कों पर सामने से आती गाड़ियों की हेडलाइटें जानलेवा मालूम पड़ती थीं। हम लोगों ने एक गांव में रुकने की कोशिश की तो पता चला, वहां दो रात पहले ही डकैती पड़ी है और सारी सदिच्छाओं के बावजूद वहां कोई हमें अपने यहां ठहराने की हिम्मत नहीं कर सकता था। बहरहाल, उन लोगों ने थोड़ी देर सुस्ताने का मौका दिया और गुड़ की डली के साथ एक-एक लोटा पानी भी पिला दिया। हिम्मत करके हम लोगों ने साइकिल भगाई। रात में डेढ़ बजे के आसपास हम लखनऊ से थोड़ा पहले पड़ने वाले संजय गांधी पीजी मेडिकल कॉलेज पहुंचे और वहां पहुंचकर हमें चांद निकलता दिखाई पड़ा। यह एक तेज भागती रेलगाड़ी के पीछे से उग रहा था। हमें शुरू में लगा जैसे गाड़ी के पीछे आग लगी है। गाड़ी पार होने पर चांद दिखा तो हम लोगों ने उसे भयंकर तरीके से गालियां दीं और जैसे-तैसे लखनऊ कैंट इलाके में प्रवेश कर गए।
स यात्रा के साथ कई दिलचस्प बातें जुड़ी थीं, लेकिन इसकी सबसे खास बात यह थी कि इसका अंत इंदिरा राठौर उर्फ इंदु जी से मुलाकात में हुआ। तीन साल बाद अचानक यूं मिलना होगा, सोचा न था। 1984 में जीजी के यहां गया था तो उनके पड़ोस से बहुत प्यारी आवाज में रेशमा का गाना सुनाई पड़ा...लंबी जुदाई...। कहीं रेडियो तो नहीं। लेकिन आवाज रेशमा जितनी भारी नहीं थी। कैप्टन श्याम सिंह राठौर सिक्यूरिटी ऑफिसर की छोटी बेटी हर चीज में अव्वल। पढ़ाई, गाना, डिबेट...अक्ल से लेकर शक्ल तक हर चीज में। और कविता भी लिखती है। तो क्या हुआ, ये सारी चीजें थोड़ा-बहुत हम भी कर सकते हैं....कविता लिखती है तो....क्यों नहीं, कविता भी लिख सकते हैं। कुल दो शेर लिखे- एक जाहिर और एक बातिन। जाहिर सबने पढ़ा- आप भी पढ़ें। समां अजनबी सा नजर आ रहा है, हर इक पल ठिठक कर गुजर जा रहा है। थकी शाम है कुछ रुआंसी-रुआंसी, न घबरा मुसाफिर शहर आ रहा है। बातिन भी सबने पढ़ा, सिर्फ जिसके लिए लिखकर रखा गया था, उसे ही छोड़कर। मौका है, आप भी पढ़ें- जितने नजरों से दूर रहते हैं, उतने ही दिल के पास रहते हैं। जबसे बिछड़े हैं आप हमसे, हम इस कदर क्यूं उदास रहते हैं। हुआ यह कि हमारे भानजे गुड्डू ने कागज का चुटका उड़ा लिया और जीजाजी के हवाले कर करके मुझे अगले बारह साल रेतने का मौका उन्हें हाथोंहाथ दे दिया। इंदुजी अगली सुबह ही पिथौरागढ़ चली गईं और मुझे मेरी मूर्खता के चहबच्चे में लंबे समय के लिए कैद हो जाना पड़ा- ये हैं मिस्टर फलाना, चिट्ठियां लिखते हैं लेकिन ध्यान नहीं रखते कि लिख किसे रहे हैं... और ध्यान आ भी जाए तो गलत पते पर पोस्ट कर देते हैं। लखनऊ में उनके भाई जगमोहन सिंह राठौर मिले, जिन्हें मैं नाम से जानता था, लेकिन शक्ल पहली बार ही देखी, और फिर अगले दिन इंदिरा राठौर, जिन्हें चलते-चलते मैं किसी तरह अपना पता दे ही आया था। और पता भी तो अपना कोई था नहीं। इरफान का था- 7, मुस्लिम बोर्डिंग हाउस, इलाहाबाद युनिवर्सिटी, इलाहाबाद। 

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13 कमेंट्स:

Udan Tashtari said...

बढ़िया रहा साईकिल से लखनऊ यात्रा जानना..आगे इन्तजार है.

Khushdeep Sehgal said...

लंबी जुदाई, मेरा भी फेवरिट है...संस्मरण ने बांध कर रखा हुआ है...आगे का इंतज़ार...

जय हिंद...

dhiru singh { धीरेन्द्र वीर सिंह } said...

अब आपने उत्सुकता और बडा दी

दिनेशराय द्विवेदी said...

कॉमरेडशिप और दोस्ती में फर्क तो होता है। एक में मकसद के कारण लोग साथ होते हैं। लेकिन उस साथ में भी लोगों के अलग अलग मकसदों से साथ होते हैं। यहीं अंतर का कारण है लेकिन जो वास्तव में अंतिम लक्ष्य के मकसद से कॉमरेडशिप में आता है वह दोस्ती सब से गहरी होती है।

Ashok Kumar pandey said...

दोस्ती का उच्चतम रूप होता है कामरेडशिप…

निर्मला कपिला said...

्रोचक लगा धन्यवाद्

किरण राजपुरोहित नितिला said...

दोस्ती के बारे में पढना सुखद है।

रंजना said...

समां अजनबी सा नजर आ रहा है, हर इक पल ठिठक कर गुजर जा रहा है।
थकी शाम है कुछ रुआंसी-रुआंसी, न घबरा मुसाफिर शहर आ रहा है। ...

सचमुच लाजवाब !!!

सरस रोचक संस्मरण आनंदित कर गया...

वन्दना अवस्थी दुबे said...

वाह! आनंदम!

स्वप्नदर्शी said...

आपके संस्मरण पढ़ना रोचक है

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

बकलम खुद का संस्मरण बढ़िया रहा!

Smart Indian said...

भानजे गुड्डू ने कागज का चुटका उड़ा लिया और जीजाजी के हवाले कर करके मुझे अगले बारह साल रेतने का मौका उन्हें हाथोंहाथ दे दिया।
गज़ब!

मीनाक्षी said...

हमारी ब्लॉगिंग के शुरुआती दौर में पढ़ी गई आपकी एक दो कविताएँ अभी भी याद हैं... भूख से कोई नहीं मरता --- दिल्ली में डिप्रेशन से मरने वालों की बात नहीं भूली... चैटरूम में रोना याद इसलिए है कि रियाद में हम अकेले घूम सकते थे तो चैट रूम में....

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